संसद का शीतकालीन सत्र
लोकतंत्र में संसद का अस्तित्व एक मंदिर सदृश है, जिसमें प्रवेश करते ही सकारात्मक विचार स्वतः उत्पन्न होने लगते हैं। संसद सत्तापक्ष को जनता के हितार्थ कार्य करने हेतु निर्देशित करती है तथा प्रस्तावित योजनाओं पर पक्ष व विपक्ष को अपना मत रखने का भी पूर्ण अधिकार प्रदान करती है। पक्ष-विपक्ष के विचारों के आदान-प्रदान के पश्चात सभापति महोदय निर्णय लेते हैं कि उन प्रस्तावित मतो का विभाजन कराया जाए अथवा नहीं। यह एक खेद का विषय है कि इस सत्र में सदन की बैठक चर्चा के लिए स्थापित नहीं हो पायी और इसमें दीर्घ गतिरोध उत्पन्न होते रहे। सभापति का प्रमुख दायित्व यह है कि वह सदन को क्रियान्वित करने हेतु एक ऐसा वातावरण तैयार करे, जिसमें दोनों पक्ष देशहित को सर्वोपरि रखते हुए सकारात्मक चर्चा में अपना योगदान दे सकें।
सदन के मनोनीत सदस्यों का भी यह एक प्रमुख कर्तव्य यह है कि यदि सभापति अपने निर्धारित कार्यो का निर्वाह निष्पक्ष रूप से कर रहे हैं तो उनको अपना सहयोग प्रदान करें नाकि सदन की गरिमा को खंडित करें। जनता अपने प्रतिनिधि सांसदों को इसी आशा से समर्थन देकर चयनित करती है कि उनके पास राजनैतिक ज्ञान तथा जनता के हितार्थ कार्य करने की निपुणता तो अवश्य ही होगी। इसके विपरीत यह देखा जाता है कि सांसद के रूप में नामित होने के पश्चात अधिकांश सांसद प्रत्येक माह अपना वेतन और भत्ता निरन्तर लेते हैं, परन्तु 5 वर्ष के कार्यकाल में एक दिन भी चर्चा में भाग नहीं लेते। उनका कार्य केवल अपने दल के नेता के निर्देशों का समर्थन करते हुए संसदीय व्यवस्था में विघ्न उत्पन्न करना ही होता है। परिणामस्वरूप जनता के द्वारा ऐसे सांसद को चुना जाना देश के लिए अत्यधिक कष्टदायी होता है।
लोकतंत्र का मंदिर अर्थात् संसद की ऐसी विकट स्थिति वास्तव में लज्जास्पद है। सम्पूर्ण विश्व हमारे माननीय सांसदों के इस प्रकार के अमर्यादित कृत्यों को दूरदर्शन के माध्यम से देखता है। अब समय आ गया है जबकि पुरातन चले आ रहे संसदीय नियमों में परिवर्तन किया जाए। इन परिवर्तनों के अन्तर्गत इस प्रकार की व्यवस्था की जाए कि जिस दिन भी संसद सुचारू रूप से क्रियान्वित ना हो पाए, उस दिन की सांसदों के वेतन की कटौती की जाए, यदि ऐसा करने पर भी उनके व्यवहार में परिवर्तन न हो, तो उन्हें पूर्णतया क्षतिपूर्ती का दायित्व वहन करना होगा।
सांसद बनने के लिए उसकी योग्यता कम से कम परास्नातक अवश्य होनी चाहिए अथवा वह व्यक्ति पूर्व में भी एक बार विधायक पद पर चयनित होकर कभी भी संसदीय मर्यादा का उल्लघंन न किया हो। इस प्रकार के प्रावधान का होना आज की राजनैतिक आवश्यकता है। सांसदों के इसी प्रकार के अमर्यादित व्यवहार के कारण देश के हजारों करोड़ रुपयों की हानि हो रही है। संसद की प्रतिदिन की बैठक का व्यय लगभग 3 करोड़ का होता है और यह धन जनता के अथक परिश्रम का प्रतिफल स्वरूप होता है, जिसको सरकार टैक्स के रूप में एकत्र करती है, उस धन पर सांसद, संसदीय कार्यवाही के अन्तर्गत मात्र व्यंग्य, छींटाकशी आदि में समय व्यतीत करते हुए अपने कर्तव्य का निर्वाह करने में पूर्णतया विफल हो रहे हैं।
इस सत्र की सबसे दुखद घटना राज्यसभा में सभापति के विरूद्ध प्रतिपक्ष द्वारा अविश्वास प्रस्ताव लाना रहा। परन्तु तकनीकी कारणों से राज्य सभा के उपसभापति महोदय द्वारा उस प्रस्ताव को निरस्त करके, उस विकट स्थिति को नियन्त्रित कर लिया गया, क्योंकि राज्यसभा का सभापति केवल सभापति न होकर देश का उपराष्ट्रपति भी होता है। ऐसा करके उन्होंने संसद की गरिमा को लज्जास्पद् होने से बचा लिया। यदि ऐसा नहीं होता तो संसद की गरिमा किस निम्न स्तर तक पहुँच जाती, इसकी कल्पना करना भी सम्भव नहीं है।
स्वतंत्र भारत की यह संसद में घटित पहली घटना थी। संसदीय सदस्यों की कार्यप्रणाली को सम्पूर्ण विश्व देखता है और यदि सदन सुचारू रूप से क्रियान्वित नहीं होती है तो उसके लिए विपक्ष भी उतना ही उत्तरदायी होता है। ऐसी स्थिति में सभापति को बुद्धि चातुर्य के साथ सभा को शांत करके सदन की गरिमा को यथावत बनाए रखने का दायित्व पूर्ण करना चाहिए।
*योगेश मोहन*