ऊँ नमः शिवाय
सावन माह में शिवरात्री के शुभ अवसर पर प्रतिवर्ष शिव-पार्वती विवाह के उपलक्ष में मन वांक्षित फल प्राप्ति हेतु कांवड़ यात्रा प्रचारित हो गई है। हम यदि कांवड़ यात्रा के इतिहास पर दृष्टिपात करें, तो इस पुण्य कार्य का शुभारम्भ मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार के द्वारा अपने अन्धे माता-पिता को तीर्थयात्रा स्वरूप ले जाने से हुआ था। श्रवण कुमार ने दो टोकरियों की कांवड़ बनाकर तथा उसमें अपने माता-पिता को बिठाकर देश के विभिन्न तीर्थ स्थलों पर स्थापित शिवालयों में उनसे गंगाजल अर्पित कराने का व्रत लिया था।
अब उस कावंड़ यात्रा का स्वरूप परिवर्तित हो गया है। आज यह एक माह के मेले के रूप में प्रारम्भ होती है, जिसमें विभिन्न प्रदेशों के शिवभक्त कांवड़ में विभिन्न स्थानों से गंगाजल लेकर शिवरात्री को अपने निकटस्थ शिवालयों में गंगाजल अर्पित करते है। परन्तु आज शिवभक्तों की कांवड़ यात्रा अपने माता-पिता को तीर्थ यात्रा कराकर पुण्य अर्जित के स्थान पर निजी स्वार्थो की पूर्ति हेतु की जाती है।
इस कांवड़ यात्रा को निर्विघ्न सम्पन्न कराने हेतु एक माह पूर्व ही शासन-प्रशासन इसकी व्यवस्था में संलग्न हो जाता है। कांवड़ यात्रियों को कोई कष्ट न हो, इसके लिए प्रशासन यातायात की दिशा परिवर्तन कर, चिकित्सा की समस्त सुविधाएं उपलब्ध कराता है तथा विभिन्न व्यवसायियों तथा स्वयंसेवको के द्वारा भण्डारों का आयोजन किया जाता है। इन सब व्यवस्थाओं के उपलब्ध होने के उपरान्त भी कुछ कांवड़िएं अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।
इसके इतर इस यात्रा के दौरान जनता को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से अनेक प्रकार के कष्टों को सामना करना पड़ता है, यथा – फलों और सब्जियों के मूल्यों में चार गुना तक वृद्धि हो जाती है, कांवड़ मार्ग में पड़ने वाली दुकानों का व्यवसाय एवं दुकानों की बिक्री पूर्णतया चौपट हो जाती है, औद्योगिक संस्थानों को हजारों करोड़ रूपयों की हानि उठानी पड़ती है, सरकार को राजस्व की हानि होती है, सभी स्कूल व कॉलेजों, 10 दिनों के लिए बंद हो जाने से शिक्षण कार्य में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है व परिक्षाएँ भी स्थगित करनी पड़ती हैं, नित् प्रतिदिन मजदूरी से अपना जीवन यापन करने वाले मजदूरों को भी बेरोजगार रहना पड़ता है, छोटे रेहड़ी पर खान-पान विक्रय करने वालो की मजदूरी समाप्त हो जाती है, रिक्शा चालक व टेम्पु चालको की आमदनी भी शून्य सदृश हो जाती है, सम्पूर्ण यातायात व्यवस्था धड़ाम हो जाती है। जहाँ एक तरफ सम्पूर्ण शहर, शिव भक्तों से सराबोर हो जाता है, वहीं दूसरी ओर सम्पूर्ण शहर की दैनिक गतिविधियों में बन्द हो जाती है, गम्भीर रोगियों को आपातकालीन चिकित्सा सुविधा समय पर प्राप्त होने में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है। इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण शहर में जगह-जगह भण्डारों के आयोजन से असुविधाओं तथा गंदगी का भण्डार विद्यमान हो जाता है। कांवड़ लाने में जहाँ एक ओर श्रृद्धा की भावना की अतिशयता होने से यात्रा की थकान नहीं होती परन्तु कुछ कांवड़िए इस ताकत को कृत्रिम रूप मेें मद्यपान का सेवन करके एकत्र करते हैं। इससे मदिरा व अन्य नशे की सामग्री की बिक्री में वृद्धि हो जाती है। ऐसी परिस्थितियों में कांवड़ियों के मध्य हिंसा की भावना उत्पन्न हो जाती है, जिसके लिए सुरक्षाबलों को तैनात करना पड़ता है परन्तु उनकी विवशता यह होती है कि वे चाहकर भी अपने बल का प्रयोग नहीं कर सकते हैं, परिणामस्वरूप वे गालियाँ तथा कांवड़ियों के द्वारा किए गए अपमान को सहन करते हैं।
ईश्वर की स्तुति के किसी भी पवित्र ग्रन्थ में यह वर्णित नहीं है कि मनुष्य स्वयं को अथवा जनता को कष्ट देकर ईश्वर को प्रसन्न करें। इसके विपरीत ईश्वर, सृष्टि के समस्त प्राणीजन को किसी भी प्रकार का कोई कष्ट न हो, इस उद्देश्य के साथ की गई पूजा को ही स्वीकार करते हैं। वर्तमान समय में कांवड़ यात्रा मात्र जनता के कष्ट तथा अव्यवस्था का पर्याय हो गई है। इस यात्रा को जो कांवड़िएं सद्भावना के साथ पूर्ण नहीं करते हैं, हिंसक प्रवृति तथा दुर्व्यसन, मदिरा पान आदि के साथ पूर्ण करते हैं, उनपर भगवान शिव की कृपा कदापि नहीं होती है।
वर्तमान समय में कांवड़ यात्रा मात्र मनोंरजन तथा असामाजिक तत्वों का उन्मुक्त रूप से वर्चस्व दिखाने का एक साधन मात्र रह गई है। इस विषय पर हमारे पुज्य शंक्राचार्यों, धर्म गुरुओं, संतो एवं राजनेताओं को गम्भीरता से चिंतन करना होगा अन्यथा भविष्य में यह एक अभिशाप का स्वरूप भी ले सकती है, तब इसके परिणाम अत्यंत ही दुखद होंगे और सम्पूर्ण विश्व इस धर्मान्धता का उपहास करेगा। इसलिए इस कांवड़ यात्रा के वास्तविक अर्थ को हमें विस्मृत नहीं होने देना है। ईश्वर की उपासना करने की भावना के स्वरूप को विकृत होने से बचाना है। यदि ऐसा करने में हमारे राजनेतागण और धर्म गुरु सफल होते हैं तो निश्चितः ईश्वर भी प्रसन्न होंगे, जनता कष्ट रहित होगी और सम्पूर्ण भारत शिवमय हो जाएगा। अधर्म से भी मुक्ति प्राप्त होगी, क्योंकि कोई भी धर्म पूजा या भक्ति ईश्वर की प्रकृति का विनाश एवं जनता को कष्ट देकर प्राप्त नहीं होगी, यह अधर्म है।
*ऊँ नमः शिवाय*
*योगश मोहन*