भगवान श्री कृष्ण और मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम के जीवन से शिक्षा
मानव रूप में अवतरित प्रत्येक विभूषित आत्मा स्वयं में एक पवित्र ग्रंथ है जो युवाओं के साथ-साथ सभी मनुष्यों के लिए प्रेरणा का स्रोत होती है। इसीलिए प्रसिद्ध व्यक्तियों की जीवनियों को छात्रों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया जाता है।
श्री कृष्ण और श्री राम के जीवन चरित्र का यदि हम गहनता से अध्ययन करें तो हमें उसमें निहित उच्च श्रेणी का ज्ञान प्राप्त होगा। साथ ही इन दोनों दैवीय शक्तियों के मानव रूप में अवतरित होने के पृथक उद्देश्यों तथा उनमें निहित गहन अन्तर के रहस्यों का भी अनावरण होगा।
भगवान कृष्ण ने माता देवकी के गर्भ से जन्म लेकर शैशवास्था से ही ईश्वरीय शक्ति के दर्शन कराने प्रारम्भ कर दिए थे। उनके जन्म लेने के पश्चात वासुदेव जी ने नवजात शिशु के जीवन रक्षार्थ गोकुल की ओर प्रस्थान किया। भगवान कृष्ण की दैवीय शक्ति से वासुदेव जी के मार्ग में उत्पन्न समस्त बाधाएं स्वतः ही दूर हो गई, यथा – कारागार के ताले स्वतः ही खुल गए, सुरक्षा कर्मी गहन निद्रा में चले गए, यमुना जी की बाढ़ भी शांत हो गयी और वे सुरक्षित गोकुल पहुँच गए। तत्पश्चात उसी रात्रि को ही जन्म लेने वाली नन्दबाबा की पुत्री को लेकर पुनः कारागार में आ गए। इस प्रकार श्री कृष्ण ने जन्म से ही अपने ईश्वरीय स्वरूप को प्रकट करना प्रारम्भ कर दिया था।
श्रीकृष्ण ने 11 वर्ष की अल्पायु में राक्षसराज कंस का वध करने से पूर्व ताड़का, पूतना, शकटासुर, कालिया मर्दन, नरकासुर आदि का वध करके अपनी दैवीय शक्ति को प्रमाणित कर दिया था। श्रीकृष्ण ने बाल क्रीड़ाओं के दौरान 4 वर्ष की अल्पायु में ही माता यशोदा को अपने मुख में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के दर्शन करा दिए थे। 8 वर्ष की आयु में उन्होंने वृहद गोवर्धन पर्वत को अपनी कनिष्ठ अंगुली पर उठाकर देवराज इन्द्र का घंमड भी चूर-चूर कर दिया था। जब उद्धव जी कृष्ण को गोकुल से मथुरा वापिस ले जा रहे थे तो सम्पूर्ण गोकुलवासियों ने अपने प्रिय कृष्ण को अश्रुपूर्ण नेत्रों से विदा किया। मथुरा में राक्षसराज कंस ने अपने दोनों विशाल मदिरापान किए हुए हाथियों को 11 वर्ष के अबोध बालक श्री कृष्ण का वध करने हेतु छोड़ दिया, परन्तु उन्होंने दोनो मदमस्त हाथियों को उठाकर बहुत दूर फेंक दिया था और महाबलशाली कंस का वध भी बिना किसी अस्त्र-शस्त्र कीे सहायता के सहजता से ही कर दिया। तत्पश्चात अपने पिता वासुदेव को पुनः राजगद्दी पर आसीन होने का अवसर प्रदान दिया।
महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण की महत्वपूर्ण भूमिका सर्वविदित है। परन्तु उस युद्ध के मध्य अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण के द्वारा दिया गया गीता का उपदेश सम्पूर्ण विश्व के लिए आज भी प्रसांगिक है। युद्धस्थल पर अर्जुन को अपने विराट स्वरूप के दर्शन कराकर उन्होंने समस्त विश्व में स्वयं के ईश्वर होने का प्रमाण दिया। मनुष्य को सुखी जीवन भोगने के लिए प्रतिदिन श्रीमदभागवत् कथा का पाठ करना आवश्यक है।
मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने माता कौशल्या के गर्भ से जन्म लिया परन्तु उन्होंने अपनी कोई भी दिव्य शक्ति प्रारम्भ में प्रकट नहीं की। सीता स्यंवर के अवसर पर जिस शिव धनुष को कोई भी राजा हिलाने तक में समर्थ नहीं था उसको प्रभु श्री राम ने सहजता से उठाकर खंडित कर दिया और सीता जी के साथ उनका पाणिग्रहण संस्कार हुआ। राज्याभिषेक के अवसर पर मातृ-पितृ भक्त श्रीराम ने अपने पिता के आदेशों को सर्वोपरी मानते हुए, अपनी धर्मपत्नी सीता तथा भ्राता लक्ष्मण के साथ 14 वर्ष के कठोर वनवास को सहर्ष स्वीकार किया।
लंकापति रावण द्वारा सीताहरण के पश्चात भगवान श्रीराम को वनवास के समय हनुमान जी मिले और उनकी सुग्रीव से मित्रता कराकर उन्हीं के बड़े भ्राता बाली, जो रावण से भी अधिक शक्तिशाली तथा जिसमें 100 हाथियों से भी अधिक बल था, का संहार कर सुग्रीव से अपनी मित्रता का धर्म निभाया। यह श्री राम की कृपा का ही परिणाम था कि लक्ष्मण जी के मूर्छित होने पर उनको चेतना में लाने हेतु हनुमान जी औषधी स्वरूप संजीवनी बूटी का सम्पूर्ण पर्वत ही उठा लाए थे। हनुमान जी द्वारा सोने की लंका का दहन किया जाना भी भगवान श्री राम के प्रति उनकी भक्ति का ही चमत्कार था। युद्ध के समय अहिरावण, राम और लक्ष्मण का अपहरण कर उन्हें पाताल लोक में ले गया था, वहाँ भी श्रीराम की कृपा से हनुमान जी ने अपना पंचमुखी स्वरूप धारण कर अहिरावण का वध किया और दोनों को सुरक्षित पुनः युद्ध स्थल पर ले आए। श्री राम की कृपा से ही नल तथा नील ने समुद्र के ऊपर पुल का निर्माण करके लंका पर चढ़ाई की। यह युद्ध 58 दिन तक चला, अन्त में श्री राम ने रावण की नाभी में रखे हुए अमृत को दैवीय शक्ति से युक्त बाण से भस्म कर उस राक्षसराज रावण का वध किया।
14 वर्ष का वनवास समाप्त होने के पश्चात पुनः अयोध्या आने पर मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम ने एक साधारण धोबी के कटाक्ष पर सीता जी का त्याग करके अपने राजधर्म की मर्यादा का पालन किया और अपनी पत्नी तथा पुत्रों के विछोह का दुख भी जीवनपर्यन्त सहन किया। अन्त समय में उन्होंने सरयु नदी में जल समाधी लेकर मर्यादा पुरूषोत्तम होने का सम्मान प्राप्त किया।
मनुष्य को सुखी जीवन भोगने के लिए प्रतिदिन हनुमान चालिसा का पाठ करना आवश्यक है।
*योगश मोहन*